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कागजी किसानों को सरकारी योजनाओं का लाभ क्यों? जीमीनी धरातल पर मेहनत और पसीने के दम पर खेती कर अन्न उगाने वाले किसान मायूस क्यों?


नांगर ल धरके एक हरिया खेत ल जोतें के मरम ल जाने बैगर किसान नी बन सकें। काबर के जमीन जल चुकी है आसमान बाकी है 

सूखे कुएं तुम्हारा इत्महान बांकी है,

वो जो खेतों की मेढ़ो पर उदास बैठे हैं,

उनकी आंखों में अब तक ईमान बांकी है,

बादलों बरस जाना समय पर इस बार, क्योंकि किसी का मकान गिरवी तो किसी का लगान बांकी है। 

@ vinod netam # 

किसी महापुरुष ने मनुष्य जाति की दो प्रकार होने की बात कही है। पहला मनुष्य जाती वह जो जीने के लिए खाता है और दूसरा मनुष्य जाती वह जो खाने के लिए जीता है। बहरहाल दोनों मनुष्य जाति के लिए खाना जरूरी है और खाना के लिए दोनों मनुष्य जाति को कमाना जरूरी है। जैसा कि हमारे सुधी पाठकों को यह भली-भांति से पता है कि मनुष्य चाहे वह किसी भी जाति से ताल्लुक रखता हो उन्हें जीवन जीने के लिए खाने की आवश्यकता हर हाल में पड़ती है। अब सोचने वाली बात है कि आखिरकार मनुष्य जाति अपने लिए खाना की व्यवस्था कंहा से और किस तरह से उपलब्ध करता हैं। गौरतलब हो कि संसार भर में मौजूद समस्त प्राणियों का दाना और खाना कुदरत ही तय करता है और मनुष्यों का खाना भी प्रकृति के बनाए हुए उसूलों के मुताबिक ही निर्धारित होता है। अतः संसार के सभी जीव जंतु कुदरत के द्वारा निर्धारित अपने अपने खाद्य पदार्थों तक पहुंचने हेतू रोजाना कड़ी मेहनत और मसक्त करते हुए दिखाई देता है। ऐसे में दूसरा मनुष्य जाति से ताल्लुक रखने वाले मनुष्यों के लिए यह समझना जरूरी है कि बैगर मेहनत के खाना मिलना मुश्किल ही नहीं बल्कि मुमकिन है। भौगोलिक दृष्टिकोण के बिहाप पर यदि देखा जाए तो धरती के समस्त चराचर जगत में पानी ज्यादा और जमीन कम है और जितने जमीन है वहां पर जलिय जीवों को छोड़कर बाकी अन्य जीव जंतु मनुष्यों के साथ निवास करते हुए अपनी खाना और दाना का जुगाड़ करते हैं। आमतौर पर मनुष्य जाति खेती के जरिए अन्न पैदा करके अपने लिए खाना का व्यवस्था करते हुए दिखाई देते हैं। दुनिया के लगभग सभी देशों में मनुष्य जाति से ताल्लुक रखने वाले लोग अपनी अपनी इच्छा अनुसार खेती करते है। जिसमें भारतीय उपमहाद्वीप भी शामिल हैं। दुनिया के दूसरे सबसे बड़ी आबादी वाले देश में रहने वाले लगभग आधी आबादी खेती किसानी से जुड़े हुए कार्यों पर निर्भर बतायें जाते हैं। भारत संसार भर में सबसे प्रभावशाली सामुहिक खाद्य वितरण प्रणाली लागू करने वाला इकलौता राष्ट्र है। ऐसे में भारत के अंदर मौजूद अन्नदाताओं की व्यथा निश्चित रूप से कई गंभीर सवाल खड़े करता है। 

यह सवा आना चौबीस कैरेट सोना की तरह सत्य है कि संसार के दूसरे सबसे बड़े जनसंख्या वाले देश और दुनिया के सबसे बड़े लोकतांत्रिक व्यवस्था के जनक माने जाने वाले हिन्दुस्तान की आधी से अधिक आबादी खेती पर ही निर्भर है। बावजूद इसके देश के अंदर किसानों की माली हालत महज नाम मात्र के अन्नदाता बनकर रह गई है 'जबकि दूसरों के भुख को मिटाने वाले अन्नदाता किसानों का देश में पूजा होना चाहिए। यंहा पर गौर करने वाला एक बात यह भी है कि देश के सरकार किसान उसे मानकर चल रहा है जिसके पास खेती की जमीन है,जबकि जमीनी धरातल पर जो किसान असलमार खेती कर रहे हैं उनके पास जमीन ही नहीं है या फिर है तो नहीं के बराबर। अब सोचने वाली बात यह है कि देश के अंदर वह कौन किसान हैं जो कागज के किसान बने हुए बैठे और वह किसान कौन हैं जो बैगर खेती लायक जमीन के न रहते हुए भी असलमार जमीनी धरातल पर दिन रात खेतों में मेहनत और पसीना बहा कर अन्न पैदा करते हैं। सनद रहे आजादी के इतने सालों बाद आज के अमृतकाल के इस दौर तलक देश में किसानों की स्थिति जीरो बट्टा सन्नाटा बना हुआ प्रतीत नजर आ रहा है जबकि वंही दूसरी ओर देश में रहने वाले कागज के किसानों की हालत सुधरा हुआ दिखाई देता है। अब क्यूं, कैसे और किसलिए यह सभी अन्न खाने वाले मनुष्यों को समझना चाहिए। दरअसल देश के अंदर मौजूद रहने वाले ज्यादातर अमीर तबका में शामिल मनुष्य जाति के लोग अपने संसाधनों के दम पर सभी क्षेत्रों में लगातार सम्पन्न बनते जा रहे है। सम्पन्न रहने वाले ज्यादातर अमीर तबका में शामिल सफेदपोश वर्दी धारी नेता बड़े बड़े नौकरशाह, न्यायालय में बैठे हुए जज कार्यलय में मौजूद अधिकारी और कई सफेदपोश समाज सेवक हैं। इनके नाम पर सैकड़ों एकड़ खेती की जमीन सरकारी रिकॉर्ड में आज भी दर्ज है। सरकार के द्वारा बनाई गई किसानों से जुड़ी हुई योजना का लाभ यही कागज के किसान जमीनी धरातल पर सफाचट कर जाते हैं। ऐसे में असलमार जो जमीनी धरातल पर किसान है वो महज कर्जा दाता किसान अन्नदाता बनकर रह जाते हैं। विडंबना के साथ व्यक्त्त करना पड़ रहा है कि देश में रोजाना कई किसान अन्नदाता को अपनी समस्याओं के चलते आत्महत्या करना पड़ता है।

anutrickz

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