कई मायने हो सकते हैं। विदेशी शासन के नीचे रहना गुलामी थी, उससे मुक्त होना आजादी है, यह हमारी बेसिक सोच है।
इसलिए 1947 में आजाद हुए।
सोचिये की परग्रही जीवो ने दुनिया पर कब्जा कर लिया है। अब आजादी की लड़ाई सारे इंसान मिलकर लड़ेंगे। अमेरिकी, चीनी, जापानी.. अब ये संघर्ष मनुष्य वर्सेज परग्रही होगा।
लेकिन हमारा शत्रु परग्रही नही था, ब्रिटिश था.. गोरा था, क्रिस्चियन था। दूसरा देश, दूसरी रेस, दूसरे धर्म की गुलामी। इसे हटाना आजादी थी।
लेकिन इसके पहले हम इस्लामी शासन के अधीन थे।
इस केस में रेस तो समान थी है, रंग भी। लेकिन धर्म अलग, संस्कृति अलग, भाषा अलग। इसे हटाना आजादी थी।
अभी अमृतकाल में भी यह लड़ाई पुनर्जीवित हुई है। सभी उदाहरण में अब तक आजादी के दीवाने हम थे। अब केस पलट कर देखिए।
कश्मीरियों के लिए, नार्थ ईस्ट के लिए क्या कहेंगे? दूसरा धर्म, दूसरी भाषा, दूसरा कल्चर उनपर भी तो राज कर रहा है। अपनी मान्यताओं, भौगोलिक दावों, खानपान, व्यवस्था को उनपर थोप रहा है।
यहूदी, दूसरे विश्वयुद्ध में प्रसिक्यूट हुए। पूरे यूरोप में मारे गए, भगाए और अपमानित किये गए। अंततः लड़कर इजराइल लिया। अरबों की धरती पर, कब्जा किया। और अब वैसे ही परसिक्यूशन, हमले, दमन की नीति से उन्हें दबाए हुए हैं।
आजादी की सामुदायिक परिभाषा में, आजादी का फलसफा ऐसे ही तिरोहित हो जाता है।
सत्ता का चरित्र एक सा होता है। सत्ता मिले तो ऑप्रेसड खुद ऑप्रेसर बनकर उभरता है। कई बार ज्यादा जघन्य, नृशंस, दयाहीन... और लालची। फिर यह जघन्यता केवल परायों पर नही बरसती।
ईदी अमीन के दौर में युगांडा क्या स्वतंत्र था?? मुसोलिनी का इटली, हिटलर का जर्मनी, माओ-स्टालिन-जिनपिंग का चीन रूस या पोल पॉट का कम्बोडिया क्या स्वतंत्र थे?
अगर उनके ऊपर उनके बीच का, उनकी भाषा,धर्म, रेस, रंग का आदमी ही राज कर रहा था। तो इन देशों को, समाज को, लोगो को आजाद कहने में आपको हिचक क्यो है??
पश्चिमी योरोपीय और अमेरिकी समाज के लिए आजादी का मतलब, कहीं ज्यादा निजी है, गहरा है। उनके भीतर, अपने इतिहास विदेशी राज का दंश नही, इसलिए आजादी का विचार एक स्टेप आगे है।
उनके लिए समाज और व्यक्ति के भीतर की आजादी महत्वपूर्ण है। संवैधानिक व्यवस्था, याने स्टेट पावर्स को सीमाबद्ध कर देना, उसके दायरे सम्विधान में तय कर देना पहला कदम है।
इसके बाद, आम जीवन मे खाने, पीने, जीवन शैली, पूजा पाठ की आजादी चाहिए। समाज के प्रभुओं से, शासकों से, सवाल पूछने उन्हें कंट्रोल में रखने और मन मे आये, तो गद्दी से उतार देने की आजादी चाहिए।
उनकी आजादी फेयर रूल्स, फेयर कम्पटीशन, लेवल प्लेइंग फील्ड, फेयर एडमिनिस्ट्रेशन और न्याय व्यवस्था से आती है। व्यक्ति स्वतंत्र है, और उसे बनाये रखने के लिए तख्ती लेकर अकेले सड़क पर खड़ा होने से नही झिझकता।
लोग भी देखकर हंसते नही, गद्दार नही कहते, "राजनीति कर रहा" "विपक्षी है" कहकर मुंह नही बिसूरते। वे सहमत हों, तो साथ आते हैं।
असहमत हों, तो आगे बढ़ जाते हैं। यह आज़ाद समाज की पहचान है। अभिव्यक्ति की आजादी है।
हमारी आजादी की सोच प्रिमिटिव है, कबीलाई है। इसलिए अभी भी अपने नेता को तानाशाही सौपने को आमादा है। बस वो हमारे धर्म, रंग, भाषा, जाति, रेस, प्रदेश का होना चाहिए।
भूल जाते हैं, कि वैविध्यपूर्ण देश मे दूसरे धर्म, रंग, जाति, प्रदेश के लोग इसी फलसफे में गुलाम की हैसियत महसूस कर सकते हैं।
आजादी की ऐसी सामुदायिक परिभाषा में संघर्ष, दमन औऱ विखंडन के बीज छुपे होते हैं। ये बीज, आज फूटें या 100 साल बाद..
फूटते अवश्य हैं।
इसलिए आजादी मांगिये ही नही, आजादी दीजिए भी। औऱ इसके पहले ठीक से समझिये..
कि आजादी क्या है?