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नौकरी का झांसा देकर पत्रकार ने लूटा बेरोजगार का भरोसा।


 



"जब पत्रकार ही सरकारी नौकरीयों के चक्कर में बेरोजगारों को झांसे लाकर उनकी बाप पुरखों की कमाई हुई पूंजीयो को लूटने का काम करेंगे, तब जमीन बेचकर बाबू बनने वाले बेरोजगार युवाओं का सूनेगा कौन"


बालोद : दाने दाने पर लिखा है खाने वाला का नाम, व्यवहारिक रूप से ज्यादातर लोग इस शब्द का इस्तेमाल आमतौर पर बातचित के दौरान कभी  कभार किया करते है। हालांकि कहने वाले लोगों को भले ही इस शब्द के पीछे जो भाव है, उसकी अहमियत पता हो अथवा ना पता हो, लेकिन लोग इस शब्द का इस्तेमाल करते हैं यह सत्य है। वैसे भी कुदरत का नियम स्पष्ट है। मेहनत और परिश्रम के बदौलत जो मनुष्य कार्य करेगा उसे वैसे ही फल की प्राप्ति होगी। गौरतलब हो कि बबूल बोने से व्यक्ति को बबूल के फल ही नशिब होगा, "आम हरगिज़ नहीं, जिसके बावजूद धरतीलोक के कुछ अति चतुर से चतुर मानुषों के बुद्धि में दिनभर ख्याली पुलाव पकता रहता है। वे सदा इस जुगत में ख्याली पुलाव पकाते रहते हैं कि उन्हें कम मेहनत और कम परिश्रम के बावजूद ज्यादा पैसा या संपत्ति कंहा से मिल सके ताकि वो जीवन के रेस में खुद को बनाएं रख सकें। यही कसमकस और उदड़बून में कई बार बेहतरीन फिल्ड में काम करने के बावजूद ख्याली पुलाव पकाने वाले लोगों से बड़ी गलती हो जाती है। हैरानी की बात यह है कि ख्याली पुलाव बनाने में महारत हासिल करने वाले लोग अपनी गलतियों को सुधारने की बजाए उस पर उठने वाले आवाज को दबाने का प्रयास करते हैं। वंही कुछ लोग मेहनत और काबिलियत के दम पर जीवन के रेस में काबिल बन कर शामिल हो जाता है। तो वंही कुछ लोग लाटाफांदा के जरिए जीवन की रेस को पार करने की कोशिश में लगे रहते हैं। ऐसे लोग कोई भी हो सकते हैं, समाज के मध्य हर तरह के हरफन मौला मौजूद हैं। इसमें संघर्षरत राजनेता, कुटिलता और चाणक्य नीति के जानकार पत्रकार, समाजसेवक,शामिल हो सकता है। सद गुरु कबीर दास जी कहते हैं कि बुरा जो देखन मैं चला, बुरा न मिलिया कोय । जो मन देखा आपना, मुझ से बुरा न कोय । निश्चित रूप से पत्रकारिता एक जटिल पेशा है। यंहा पर हर किस्म के उत्पाद मौजूद है। यंहा कोई बैगर कुछ करे पल भर बदनाम हो कर रह जाता है, तो वंही कोई बहुत कुछ करके भी कुछ नहीं किया है 'जैसे हालत में रहता है। शायद इसीलिए मिडिया को लेकर समाज के अंदर भी बहुत कुछ कसमश चल रहा है। समाज में मिडिया की भूमिका क्या होनी चाहिए क्या नहीं होनी चाहिए यह मुद्दा आज के वर्तमान दौर में बार बार कहा या सुना जा रहा है। जरूरत इस बात का है कि मिडिया स्वंय पर लग रहे आरोपो को लेकर क्या विचार रखता है? क्या सदगुरु कबीर दास जी ने इस दोहे के माध्यम से मनुष्यों को उचित राह दिखाने का प्रयास किया है उसे मिडिया ग्रहण करते हुए समाज के मध्य एक स्वच्छ आचरण प्रस्तुत कर रहा है। क्या मिडिया स्वंय पर बेरोजगारों को झांसे में लेकर सरकारी नौकरी लगाने के नाम पर चूना लगाने की बात को स्वीकार कर सकता है? यदि नहीं तो मिडिया पर जो आरोप बेरोजगारों द्वारा मढ़े जा रहे है उन पर चुप्पी क्यों? आखिरकार बेरोजगारों के द्वारा लगाए गए आरोपो की असल सच्चाई क्या है? मामले में जांच कर युवा बेरोजगारों को न्याय दिलाने की पहल अबतक क्यों नहीं हुई ? आपने अक्सर लोगों को यह कहते हुए सुना होगा कि बस एक बार सरकारी नौकरी मिल जाए फिर उसके बाद लाइफ सेट है। भारत में तकरीबन दूसरे युवा की ख्वाहिश होती है कि उसे सरकारी नौकरी मिले। हर वर्ष करोड़ों उम्मीदवार सरकारी नौकरी के लिए होने वाली परीक्षाओं में शामिल होते हैं। कई लोग तो अपने जीवन के 5-10 साल सरकारी नौकरियों की तैयारियों में ही लगा देते हैं। ऐसे में यह जानना जरूरी है कि हमारे देश में आखिरकार क्यों सरकारी नौकरी को इतना महत्व दिया जाता है। दरअसल हर मां बाप अपने जीवन को अपने बच्चों की उज्ज्वल भविष्य हेतू खपा देता है। अतः सबकी इच्छा होती कि उन्होंने जो तकलीफ अपने जीवनकाल में देख रखी है, वह दिन उनके बच्चे ना देखे यानी कि उनके बच्चे बेहतर जीवन जीए। ऐसे में जाहिर है "हर मां बाप की ख्वाहिश रहेगी की उनके बच्चे सरकारी नौकरी करें। अपनी इसी इच्छा को पूरा करने हेतू हर मां अपने आप तक को बेंच देने की सोच रखते हैं। शायद इसी बात का फायदा उठाकर छत्तीसगढ़ राज्य के बालोद जिला में मौजूद मशहूर पत्रकारों ने अपनी नैतिक जिम्मेदारी के विरुद्ध जाकर जिला के बेरोजगारों को सरकारी नौकरी का झांसा देते हुए लाखों रुपए का चूना लगाने की खबर है। मामला प्रतिष्ठित पत्रकार बंधुओं से जुड़ा हुआ बताया जा रहा है। यह सवाआना सत्य है कि जिन पत्रकारो पर यह आरोप लगे हैं वे पत्रकार जिला में रसूख और रूतबा रखते हैं।  जिसके चलते सब नतमस्तक हो सकते हैं, लेकिन क्या मिडिया संस्थानों को, क्या जिला प्रशासन को और क्या सरकार को इस तरह से बेरोजगार युवाओं को सरकारी नौकरी का झांसा देकर लूटना शोभा देता है। यदि नहीं तो सब के सब मुंह में चुप्पी की गोली डालकर आजतक बाप दादाओं की जमीन सरकारी नौकरी के लालच में गंवा देने वाले बेरोजगारो को क्यों नहीं सूना गया?क्या मिडिया का कर्तव्य बीच समाज के मध्य इसी तरह से होना चाहिए ? निश्चित तौर पर हरगिज़ नहीं। जंहा जिला के कई छोटी बड़ी मामले में दूसरे पत्रकारों को पुलिस महकमा किसी जानकारी हेतू थाने बुलाकर लाती है, या फिर किसी मामला में गिरफ्तार करती है" तब यही मिडिया चिल्ला चिल्ला कर दिन रात खबर पे खबर चलती है,लेकिन जिला में जिस तरह बेरोजगारो को लेकर रुपया ऐंठने का मामला आता है। सबके सब चुप्पी की गोली मुंह में डालकर चुप हो जाते हैं और कोई अखबारों में खबर छपती नहीं है। निश्चित रूप से मिडिया का स्वतंत्र होना भारत की लोकतांत्रिक व्यवस्था का आन बान और शान है, लेकिन जिला में जिस तरह स्वतंत्रता का गला घोंटा जा रहा है वह भी काबिले तारीफ है। जिला के करहीभदर निवासी राहुल भूतड़ा एवं रवी भूतड़ा से कौन परिचित नहीं होगा। दोनों भाई किसी परिचय का मोहताज नहीं है। जिला प्रशासन से जुड़े हुए तमाम अधिकारियों और हर नेताओं के अगल-बगल में सदा मौजूद खड़े रहने वाले भूतड़ा बंधूओ की शख्शियत ही ऐसे हैं उन्हें जिला से लेकर बाहर के लोग तक जानते व पहचानते हैं। स्वाभाविक है समाज के मध्य रहकर इन्होंने ने जो कार्य धरातल पर कर दिखाया है वह काफी है इनके परिचय के लिए, लेकिन पत्रकारिता के आड़ में इन्होंने जो कारनामे धरातल पर कर दिखाया है उसका क्या?

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