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नक्सलवाद की तरफ भारत के ईमानदार बुद्धिजीवियों को कैसे देखना चाहिए ?

यहाँ हम उन सतही समझ वाले लोगों की बात नहीं कर रहे हैं जिनके लिए गांधी या अम्बेडकर महज़ नाम कमाने भर का ज़रिया है और हिंसा अहिंसा महज़ सतही जुमला हैं|दरअसल हम उन गहरी समझ और संवेदना वाले लोगों की बात कर रहे हैं जिन्हें भारतीय समाज, इस समाज में मौजूद अन्याय, जाति आधारित भेदभाव, जाति के कारण गरीबी अर्थात सामाजिक अर्थशास्त्र, उत्पादन के साधनों जैसे ज़मीन का जातिगत आधार पर असमान बंटवारा, और पूंजीवादी लूट, पूंजीवाद और राज्य का गठजोड़ और उसके कारण होने वाला पुलिसिया दमन, झूठे केसेस, लम्बी जेलें, दलितों, औरतों और आदिवासियों की हत्याएं और बलात्कारों, इसके खिलाफ लोगों की बेचैनी और संघर्ष की जानकारी है और जिनकी सोच में इन ज़मीनी हकीकतों की समझ शामिल है| यानी कि सीधे सीधे शब्दों में कह तो Not for अंधभक्त बल्कि एक जागरूक भारतीय नागरिक। कोई भी इंसान यदि भारतीय समाज में मौजूद जातिगत अन्याय, आर्थिक असमानता, दमन, उसके कारण बड़ी आबादी की अशिक्षा, खराब स्वास्थ्य और गरीबी को ना तो समझता है ना ही उसके मूल कारण का विश्लेषण ईमानदारी और हिम्मत से कर सकता है तो उसे और कुछ भी कहिये लेकिन गांधीवादी या अम्बेडकरवादी या बुद्धिजीवी मत कहिये | वह विशुद्ध सरकारी, अवसरवादी फर्ज़ी लफ्फाज़ है। बांकी आप स्वंय समझदार है।
इसके साथ ही जो लोग इस असमानता अन्याय और दमन के विरुद्ध किसी भी तरीके से ज़मीनी लड़ाई लड़ रहे हैं, जेल जा रहे हैं, उसकी कीमत चुका रहे हैं उन्हें बदनाम करना उन्हें गलत और खराब साबित करने में अपनी बुद्धि और लफ्फाज़ी का इस्तेमाल करने वाले लोग भी बड़ी संख्या में बुद्धिजीवी बने घूम रहे हैं | नक्सलवादी आन्दोलन के बारे में एक बात तो सभी मानते हैं कि इस आन्दोलन का जन्म समाज की असमानता, अन्याय, शोषण और दमन के विरुद्ध हुआ था | यह भी सच है कि उसी दौर में विनोबा के नेतृत्व में भूदान और सर्वोदय आन्दोलन भी गांधीवादी तरीकों पर शुरू हुआ | सर्वोदय आन्दोलन को आरएसएस ने जेपी को अपने आन्दोलन में जोड़ कर कर तहस नहस कर दिया | सर्वोदय आन्दोलन के टूटने के बाद दलितों के दमन, आदिवासियों के संसाधनों की पूंजीवादी लूट और उनके साथ सरकारी हिंसा के खिलाफ नर्मदा बचाओ आन्दोलन या किसान आन्दोलन या शाहीन बाग़ आन्दोलन हुए उस पर भी सरकारी दमन हुआ इसके अलावा लम्बे समय के लिए जेलों में कौन गए ? नक्सली, वामपंथी बुद्दिजीवी और कार्यकर्ता , दलित, आदिवासी, मुसलमान और महिलाएं| 
भारत का सवर्ण अमीर शहरी बुद्धिजीवी ना कभी दलित दमन पर विमर्श करता है ना आदिवासी दमन पर ना समाज के जातिवादी शोषक ढाँचे पर चर्चा करता है जिसके कारण करोड़ों लोग अशिक्षित और गरीब बनाए गये हैं|आज अगर शहरी सवर्ण तबका और इसका मीडिया कभी भी आदिवासी या दलित या गरीबी या सरकारी दमन की चर्चा तभी करता है जब उस खबर का सम्बन्ध नक्सलवादी घटना से होता है| भारत के शोषक पूंजीपति और उसके सेवक मिडिल क्लास का वर्ग हित इस बात में है कि वह जनता के संसाधनों और मेहनत की लूट और सरकारी हिंसा की तरफ से मूंह फ़ेर ले| अगर भारत में नक्सली आन्दोलन नहीं होता तो भारत का सवर्ण शहरी समाज कभी भी दलित, आदिवासी, पूंजीवाद और सरकारी हिंसा पर कभी ना तो रत्ती भर ध्यान देता ना कभी चर्चा करता | इसलिए भले ही हमारा नक्सलवादियों से हथियारबंद संघर्ष या गैर हथियार बंद आन्दोलन को लेकर मतभेद है| लेकिन हम इसकी सफाई सरकार और इन शहरों में बैठे फर्जी गांधीवादी या अम्बेडकरवादी बुद्धिजीवियों को क्यों दें ? हम जिस तरीके में विश्वास करते हैं हम उन अहिंसक तरीकों से अन्याय और दमन के खिलाफ संघर्ष में लगे हुए हैं| हम अपना मतभेद उनके सामने व्यक्त करेंगे जिनसे हमारा मतभेद है | और हम कई बार नक्सलियों के सामने अपना मतभेद व्यक्त कर चुके हैं| लेकिन हमें सरकार या इन जनविरोधी बुद्धिजीवियों के सामने सफाई देने की कोई ज़रुरत नहीं है | भारतीय समाज में जब तक जातिवादी दमन शोषण, पूंजीवादी लूट और सरकारी हिंसा मौजूद है तब तक उसके विरुद्ध संघर्ष भी मौजूद रहेगा |
 शहरी एलीट बुद्धिजीवी को कोई तकलीफ नहीं है इसलिए वह नहीं लडेगा,लेकिन दलित आदिवासी और अल्पसंख्यक तो ज़रूर लडेगा | क्योंकि अगर वह नहीं लडेगा तो वह जिंदा नहीं रह पायेगा | भारत के दलित आदिवासी और अल्पसंख्यक का संघर्ष सिर्फ समानता का संघर्ष मात्र नहीं है बल्कि वह अपने वजूद को बचाने की जद्दोजहद भी है इसलिए वह संघर्ष अनिवार्य है जिसे कभी खत्म नहीं किया जा सकता | जबतक करोड़ों भारतीय अपनी जाति या जन्म के स्थान या मज़हब के कारण गरीबी दमन और हिंसा का शिकार हैं तब तक समाज में उसके खिलाफ असंतोष और उसके विरुद्ध संघर्ष ज़रूरी है इसलिए पूंजीवादी सरकारी पिट्ठू नेता और यह फर्जी बुद्धिजीवी कितना भी बरगलाएं लेकिन ज़मीनी सच्चाई यह है कि अभी फिलहाल ना तो दमन शोषण और लूट बंद होने वाली है और ना ही इसके खिलाफ जनता का संघर्ष बंद होगा | यह एक लम्बी लड़ाई है जिसका नतीजा हाशिये पर फेंक दिए गए लोगों और मेहनतकश जनता की जीत में होगा,


समाजिक कार्यकर्ता हिमांशु कुमार जी के फेसबुक वॉल से सादर साभार @विनोद नेताम 

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