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हाय रे दैय्या मजदूरों की मेहनत की कमाई में भी अब सरकारी लोचा

 

जिला में मजदूरों की हालत पर प्रशासन नहीं है गंभीर, श्रम विभाग बालोद श्रमिकों की नैतिक अधिकारों के प्रति बन रहा है गैर जिम्मेदार। अमृतकाल के इस दौर में जहां भारतीय उपमहाद्वीप वैश्विक आर्थिक दृष्टिकोण के बिहाप पर दिन-दूनी रात चौगुनी तरक्की कर रहा है तो वंही दुसरी तरफ प्रति व्यक्ति आय के मामले में भारत तेज गति से पिछड़ कर रह गया है। इस बीच देश के अंदर रहने वाले गुरब्त्तो की दुनिया में एक अलग ही गुरब्ती आलम का पसरा हुआ है। परिणामस्वरूप जिधर देखो उधर बस एक ही किस्सा सुनाई देता है, कि गरीबों का कोई नहीं होता है। इसका ताजा उदाहरण बालोद जिला के राजनीतिक रण भूमि क्षेत्र अंतर्गत आदर्श ग्राम पंचायत कवंर के अंदर मौजूद मजदूरों की अलग व्यथा को मिल रहा है। दरअसल सरकारी योजनाओं में कार्यरत मजदूरों की मजदूरी भुगतान से ताल्लुक रखने वाली एक सनसनीखेज खुलासा हुआ है जिसके बारे में सुनने वाले जिम्मेदारो की शायद कान के अंदर मैल जम चुका है। मजदूरों की मानें तो उन्हें छ: बार जिला श्रम विभाग बालोद के अंदर बुला कर विभाग में कार्यरत अधिकारियों के द्वारा ब्लाक कांग्रेस कमेटी तामेश्वर साहू और उनके करतूतों के विषय में जानकारी लिया गया किन्तु आज तलक तक उन्हें उनकी मजदूरी का एक फूटी कौड़ी नहीं दिलाया है वंही ब्लाक कांग्रेस कमेटी अध्यक्ष तामेश्वर साहू अपने राजनीतिक रसूख के दम पर इन मजदूरों को खुलेआम धमकियां देता रहा है हालांकि मजदूरों को धमकी से कोई लेना-देना नहीं होता है बल्कि उन्हें रोजी और रोटी से ताल्लुक रहता है।
बालोद  -: मजदूर हमारे समाज का वह तबका माना जाता है जिस पर समस्त आर्थिक उन्नति टिकी होती है। लिहाजा मजदूरों की मेहनत और पसीने की कमाई मानवीय श्रम का सबसे बड़ा आदर्श उदाहरण माना गया है। अतः समस्त मजदूरों को सभी प्रकार के क्रियाकलापों की धुरी बताया जाता है। परिणाम स्वरूप आज के आधुनिकीकरण और मशीनरी युग में भी उसकी महत्ता कम नहीं हुई है। उद्‌योग, व्यापार,कृषि, भवन निर्माण, पुल एवं सड़कों का निर्माण आदि समस्त क्रियाकलापों में मजदूरों के श्रम का योगदान महत्त्वपूर्ण है, लेकिन एक बात यह भी कट्टू सत्य है कि मजदूरों की मजबूरी का फायदा लगभग सभी लोगों उठाना चाहते हैं और फायदा उठाने वाले लोगों में समाज का लगभग हर तबका शामिल है।
उल्लेखनीय है कि मजदूर अपना कड़ी मेहनत के बदौलत पसीना बहा कर श्रम बेचता है और बदले में वह न्यूनतम मजदूरी प्राप्त करता है। उसका जीवन-यापन दैनिक मजदूरी के आधार पर होता है,लेकिन जब तक वह काम कर पाने में सक्षम होता हैं 'तब तक उसका गुजारा होता रहता है। जिस दिन एक मजदूर किसी कारणवश अशक्त होकर काम छोड़ देता है, उस दिन से वह दूसरों पर आश्रित हो जाता है। भारत में कम से कम असंगिठत क्षेत्र के मजदूरों की तो यही स्थिति है जो कि काफी दयनीय स्थिति माना जा सकता है। असंगठित क्षेत्र के मजदूरों की न केवल मजदूरी कम होती है,अपितु उन्हें किसी भी प्रकार की सामाजिक सुरक्षा भी प्राप्त नहीं होती और तो और मजदूरों को बड़े बड़े सब्जबाग दिखाकर सदैव झांसे में रखने वाली सरकार भी मजदूरों को उनके हक और अधिकारो को तय समय पर मुहैया करा पाने में बौना नजर आता है। वंही दूसरी ओर संगठित क्षेत्र के मजदूरों की स्थिति कुछ अच्छी है। उन्हें मासिक वेतन, महँगाई भत्ता, पेंशन एवं अन्य सुविधाएँ प्राप्त हैं। उनके काम करने की दशाएँ बेहतर होती हैं। कार्य के दौरान मृत्यु होने पर उन्हें विभाग की ओर से सुरक्षा प्रदान की जाती है ताकि उनका परिवार बेसहारा न हो।

हालांकि मजदूर चाहे किसी भी क्षेत्र का हो, आर्थिक क्रियाकलापों में उसकी अग्रणी भूमिका होती है । वह सड़कों एवं पुलों के निर्माण में सहयोग करता है। वह भवन निर्माण के क्षेत्र में भरपूर योगदान देता है। वह ईटें बनाता है, वह खेती में किसानों की मदद करता है। शहरों और गाँवों में उसे कई प्रकार के कार्य करने होते हैं। तालाबों, कुओं, नहरों और झीलों की खुदाई में उसके श्रम का बहुत इस्तेमाल होता है। रिक्यहचालक, सफाई, कर्मचारी, बढ़ई, लोहार, हस्तशिल्पी, दर्जी, पशुपालक आदि वास्तव में मजदूर ही होते हैं। सूती वस्त्र उद्‌योग, चीनी उद्‌योग, हथकरघा उद्‌योग, लोहा एवं इस्पात उद्‌योग, सीमेंट उद्‌योग आदि जितने भी प्रकार के उद्‌योग हैं उनमें मजदूरों की भागीदारी अपरिहार्य होती है। इस बीच यदि मजदूरों की अब की स्थिति देखें तो उनकी हालत में सुधार होता दिखाई देता है। पहले मजदूरों की स्थिति दयनीय थी। उन्हें पर्याप्त काम नहीं मिल पाता था। जमींदार और बड़े-बड़े किसान उन्हें बंधुआ बनाकर रखते थे। उनसे श्रम अधिक लिया जाता था और पारिश्रमिक कम दिया जाता था। किन्तु अब बंधुआ मजदूरी की प्रथा समाप्त कर दी गई है। सरकार की ओर से उनके लिए न्यूनतम मजदूरी की घोषणा की जाती है जिसमें समय-समय पर सुधार किया जाता है।

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