'प्याज सत्तर की और लहसुन तीन सौ रुपए की,खाने की तेल दो सौ रुपए की तो वंही बाल में लगाने वाली तेल सौ रुपए की। बावजूद इसके चुनावी रेवड़ी खिलाने का दौर अमृतलाल के इस दौर में चरम पर, हालांकि मंहगाई के विषय में ज्यादातर बहन और बेटियों को ही अधिक जानकारी होती है,
@ vinod netam #
रायपुर : हिंदी फिल्मी इंड्रस्टी में आज से कुछ साल पहले एक फिल्म आई थी नत्था जिसमें एक मशहूर गाना फिल्माया गया था गाने का बोल सखी सैंया तो खूब ही कमात हे मंहगाई डायन खायें जात हे। बढ़ती हुई मंहगाई को लेकर इस गाना ने उस समय धूम मचाकर रख दिया था,तब लोगों के जुबान पर चढ़ा हुआ मंहगाई के मद्देनजर इस गाना ने खूब सुर्खियां बटोरी थी,लेकिन आज के वर्तमान दौर में चढ़े हुए मंहगाई को लेकर ऐसे गाने हिन्दी फिल्म इंडस्ट्री में गायब सी हो गई है। अलबत्ता मंहगी शौक से भरपूर हिंदी गाने बाजार में सुना व देखा जा रहा है,जबकि मंहगाई इन दिनों आसमान पर पहुंच गई और हर गरीब की छाती पर मूंग दल रही है। बिते दिनों जारी ग्लोबल हंगर इंडेक्स की रिपोर्ट इस बात की तस्दीक करती है कि मंहगाई का असर आज भी देश के अंदर मौजूद रहने वाले गरीबों का सीना छलनी कर देता है। बहरहाल मंहगाई की इस दौर में त्यौहारी सीजन होने के चलते गरीबी के मारे गुरबती में जीवन यापन करने वाले ग्लोबल हंगर इंडेक्स के दायरे में आने वाले लोगों की एवं मध्यम वर्गीय परिवारों हालत पतली हो चुकी है और पतली हालत के विषय में महिलाओं को अधिक जानकारी होती है। इस बीच प्याज और लहसुन नहीं खाने वाली वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण रमन की मोदी सरकार मंहगाई को लेकर खामोश दिखाई दे रही है जबकि मोदी सरकार चुप बैठने वाली सरकारों में नहीं गिना जाता है। हालांकि देश के अंदर कई महत्वपूर्ण राज्यों में विधानसभा चुनाव शंखनाद हो गया है। बावजूद इसके चुनावी मौहाल के अंदर भी मंहगाई में दिनों-दिन लगातार इजाफा देखने को मिल रहा है। ऐसे चुनाव के दौरान जाहिर सी बात है मोदी सरकार अपनी लोक लुभावन वायदों के जरिए सत्ता में काबिज होने का प्रयास करेगी। अब देखने वाली बात यह होगी कि मंहगाई और बेरोज़गारी से हलाकान आवाम क्या मोदी सरकार को सत्ता की कुर्सी सौंपतीं है या फिर नहीं।
चुनावी घोषणाओं को एक समय रेवड़ी बताकर विपक्षी राजनीतिक दल को धूर्त कहने वाले लोगों की जमात महाराष्ट्र और झारखंड विधानसभा चुनाव में कर रहे है बड़े बड़े चुनावी वायदे।
किसी भी सरकार के लिए भरा हुआ खजाना बहुत मायने रखता है। चूंकि भरे हुए खाजाना के बदौलत ही सरकार देश में रहने वाले जरूरतमंदों की जरूरतों को पूरा करने का प्रयास करती है। कहा जाता है कि इस खजाना को भरने हेतू सरकार दिन रात मेहनत करती है। ऐसे में जाहिर सी बात है एक एक पाई पाई का हिसाब सरकार के पास होती होगी। चूंकि सरकार आम जनता के द्वारा चुना गया नुमाइंदा होता है, ऐसे में जाहिर सी बात है कि इस खजाने का असली मालिक आम जनता ही होता है, हालांकि इस खजाने का पूरा हिसाब किताब सरकार ही करती है। लेकिन सरकारी के खजाने का इस्तेमाल सरकार क्या आम जनता के लिए सही मायने में कर पा रही है यह एक बड़ा सवाल है। क्योंकि जिस तरह से सरकार चुनाव जितने के लिए सरकारी खजाने का इस्तेमाल बेरोकटोक तरिके से कर रही है उसे ध्यान में रखकर यह सवाल पूछा जा रहा है कि क्या किसी भी राजनीतिक दल की सरकार को इतना भी छूट मिलना चाहिए कि वह जनता के खजाने का इस्तेमाल बैगर जनता की राय शुमारी के कर सके? आखिरकार चुनावी घोषणाओं को चुनावी रेवड़ी की संज्ञा देने वाले देश के सियासतदान चुनाव में जीत हासिल करने के लिए चुनावी रेवड़ी को परोसने में क्यों तूले हुए दिखाई दे रहे हैं? क्या आम जनता चुनाव के मद्देनजर परोसे जाने वाली दिलचस्प रेवड़ी की स्वाद को चखकर अपनी मूलभूत अधिकारों को भूलते जा रही है? ऐसे अनगिनत सवाल लोगों की जेहन में इस समय मौजूद हैं। इस बीच गौरतलब हो कि इन दिनों देश के दो महत्वपूर्ण राज्य महाराष्ट्र और झारखंड के अंदर विधानसभा चुनाव का प्रचार जोर शोर से चल रही है और चुनाव प्रचार के दौरान चुनावी रेवड़ी से भरपूर घोषणा देखा व सुना जा रहा है।