राष्ट्र महज कल्पना है..

मानव इतिहास से कबीलो शुरू होता है। ये बन्द समुदाय होता, थोड़े से रिश्तेदार, मित्र और विस्तारित परिवार..एक जैसी बोली भाषा, भोजन,मनोरंजन और पूजा अर्चना। 

और शिकार खेलने का अपना इलाका
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अगला दौर रियासतों, साम्राज्यों आता है। जब किसी ताकतवर कबीले ने इलाका और दौलत जमा करने के लिए, औरो से बड़ा बनने के लिए, दूसरे कबीलों को जीतना शुरू किया।

अपने अधीन लेना, रंगदारी वसूलना, और प्रतिस्पर्धी का प्रभुत्व कायम न हो, इसके लिए डिफेंड करना। ऐसे रियासत, राज्य, साम्राज्य बने। 

पब्लिक ऑर्डर मेंटेन करने के लिये जब धर्म का अविष्कार हुआ, राजा उसका प्रतिनिधि बन गया। आखिर ऑर्डर उसे ही मेंटेन करना था, धर्मस्थापना करनी थी। 

तो ईश्वर के बनाये राज्य का संरक्षक, राजा और उसका इलाका राष्ट्र बना। 
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तो मूलतः एक राजा, एक धर्म, एक इलाका और एक दुश्मन, राष्ट्रवाद के तत्व थे।

आप प्रोटेस्टेंट हैं, लंदन के राजा के विजित इलाके में रहते हैं, तो भले आयरिश हों, वेल्श हों, इंग्लिश हों, आप ब्रिटिश है। आपका दुश्मन फ्रांस है।

उधर फ्रेंच राजा के वफादार, उसकी जमीन पर रहने वाले, धर्म से प्रोटेस्टेंट, और ब्रिटिश से दुश्मनी रखने वाला ही सच्चा फ्रेंच था। 

ये राष्ट्र की प्रारंभिक, कच्ची और अधपकी धारणा थी। जो बढ़ते बढ़ते आधुनिक युग में मैच्योर होती है,और काम्प्लेक्स होकर पूर्णतया बदल जाती है। 
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अब राष्ट्र एक कॉमन बिलीफ है। इसके शेयर्ड वैल्यूज हैं, जिसके लोगो मे एक कुनबे की तरह, आपस मे एडजस्ट करने का इतिहास है, इच्छा है।

वे बंगाली हों, या मराठी, आर्यन हों या मूल निवासी, मुसलमान हो या जैन, बीफ खाते हो या सब्जियां.. यदि मानते हैं कि भारतीय हैं, तो वे भारतीय हैं। 

या ब्रिटिश या अमेरिकन है। तो बॉबी जिंदल अमेरिकन, ऋषि सुनक ब्रिटिश है। जो अपनी बिलोंगिंग को महसूस करता है, वह उस राष्ट्र का मेंबर है। 

और जहां उसने इस बिलीफ को तिरोहित किया, उसके लिए वह राष्ट्र "शून्य" हो जाता है। 
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ठीक वैसे ही, जैसे रुपया एक विचार है। हम कागज के एक टुकड़े को को 1000 रु और दूसरे टुकड़े 500 रुपये मानने को तैयार है, जब तक मानते है, तो वह रुपया है।

मगर जिस दिन किसी ने हमसे यह मनवा दिया, कि अब ये लीगल टेंडर नही, उस दिन उसकी वैल्यू शून्य हो गयी। रुपया कूड़ा हो गया।  

राष्ट्र का अस्तित्व भी उसमें आस्था, उसकी सर्व स्वीकृति पर आधारित है। जिसके दिलो दिमाग मे भारत के डिफाइंड आईडीया के प्रति का सम्मान है, उसके लिए भारत एक राष्ट्र है। 
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औऱ यह सम्मान, यह बिलोंगिंग का भाव, अचानक से नही होता। दिमागों में जमते जमते जमता है। मगर चूंकि यह विचार ही है, इसके कुछ बिंदुओं पर, या सम्पूर्ण आधार पर ही, काउंटर थॉट आ सकते है। 

जो सत्य, जेनुइन भी हो सकते हैं। 

चिंताएं दो किस्म की है। कश्मीर, पंजाब या नक्सल इलाको जैसी जगहें, जहां के कुछ लोगो के दिमाग मे काउंटर थॉट रहा, वे इस राष्ट्र से अपनी सम्बद्धता पर डाउट करते रहे। मगर यह लोकलाइज था, कुछ बिंदुओं पर सीमित था। 

असली खतरा, इंडिया के विचार को पूरी तरह रीडिफाइन करने से है। नई परिभाषा से हर एक को नए सिरे से तादात्म्य बिठाना होगा। 

हर शख्स, हर समुदाय एक नए वैचारिक द्वंद से गुजरेगा।
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पहले भारत किसी के खिलाफ नही बना था। एक धर्म, एक भाषा, एक संस्कृति, एक दल, एक नेता,एक दुश्मन के विचार पर नही बना था। 

इस विचार के प्रतिपादको ने चालाकी से बहुसंख्यक के हित की बात की, वोट और सत्ता पाई। मगर भारत नाम के आइडिया को छिन्न भिन्न कर रहे हैं।

जब आप राष्ट्र की स्वीकृत, स्थापित, मान्य परिभाषा, नए सिरे से डिफाइन करेंगे, तो दरअसल दूसरों को भी यही करने को प्रेरित करेंगे। 

फिर मजबूरन, दूसरो के समान तर्क को ताकत से दबाना होगा। खुदा जाने, कितने कोनो में दबाना होगा। 

मगर इतिहास गवाह है, मनोभाव दबाये जा नही सकते। जेहन में नए नेशन पैदा होंगे। 

धरती पर अपना अस्तित्व मांगेंगे। 
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हिंसा का जो अथाह समुद्र शांत हो चुका, उसे अमृत काल मे मथकर नए सिरे से नया अमृत निकालने की कोशिश हो रही है। इससे सत्ता का कुछ अमृत निकल आयेगा, जिसे नेता पियेंगे। 

सवाल यह कि जो विष निकलेगा, उसे पीने को जनता तैयार है क्या?? 

रिडेफिनेशन मंथन में कूदकर से शामिल हुए लोगों को, अगर वे शीर्ष 5000 लोगो मे शामिल नही है, तो सिर्फ विष ही मिलना है। 
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भारत के विचार को पॉल्युट करने वाले, इसे रिडिफाइन करने की कोशिश करने वाले, इस विचार के प्रथम द्रोही हैं। वे राष्ट्रद्रोही है।

उन्हें पहचानें। भारत नाम के विचार की रक्षा करें। क्योकि भारत कोई सीमा, भूमि, सेना, सड़क, एयरपोर्ट, लोकसभा विधानसभा की कुर्सियां नही। 

भारत महज एक विचार ही है।
हम भारतीयों का विचार है।