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बैगर नौकरी के डौकी नहीं अऊ सरकार के पास नौकरी नहीं।

"बैगर नौकरी मिले डौकी खोजों योजना की क्या शुरुआत हो सकती है क्या? जब बेरोजगारी एक बिमारी बनकर रह गई है 'तब क्या ऐसे में बेरोजगारी की बिमारी से तंगहाल युवाओं को डौकी खोजों योजना के लिए सरकार से मांग नहीं करना चाहिए? आखिरकार डौकी पाने का अधिकार की गारंटी इन युवाओं को कौन देगा, क्योंकि दिनों दिन सूबे के अंदर नौकरी नहीं तो डौकी नहीं यह कहावत चरितार्थ हो रही है। अब ऐसे में भला नौकरी और डौकी मिलने से रहा तब आखिरकार युवा पीढ़ी करें तो क्या करें..

राजनीति शास्त्र के जानकार बताते हैं कि जमीन छीन कर कंबल दान करने की कला का दूसरा नाम ही राजनीति है। हालांकि राजनीति शास्त्र के जानकार राजनीति को सेवा धर्म कह कर   संबोधित करते हुए कई बार दिखाई देते हैं। इस बीच संसार भर के राजनीतिक जमात से ताल्लुक रखने वाले ज्यादातर राजनेता भारतीय राजनीति को राजनीतिक रणबांकुरों का कुनबा मानकर चलता है। ऐसे में जाहिर सी बात है कि दुनिया भर के अंदर भारतीय लोकतान्त्रिक व्यवस्था को ही राजनीति का असली कर्णधार माना गया है। बहरहाल देश के अंदर बिते कई वर्षों से एक देश एक चुनाव पर चर्चा चल रही है। इस दौरान लगातार देश के कई राज्यों में विधानसभा चुनाव धड़ाधड़ सम्पन्न किए जा रहे हैं। वंही ज्यादातर राज्यों के अंदर होने वाले चुनावों में राजनीतिक दलों के द्वारा बड़े बड़े चुनावी घोषणाये आम जनता के बीच खुलेतौर पर परोसा व बांटा जा रहा है। हालांकि इस तरह चुनावी लाभ उठाने के लिए की जाने वाली घोषणाओं का क्या हर्ष होता है यह किसी से छुपा नहीं हुआ बावजूद इसके यह सिलसिला थमने का नाम नहीं ले रहा है। गौरतलब हो कि आज से कुछ साल पहले भारतीय जनता पार्टी के तमाम बड़े नेताओं ने इस तरह की चुनावी घोषणाओं को रेवड़ी की संज्ञा देते हुए इसे स्वच्छ राजनीति मंशा से परे बताया था,लेकिन हकिकत के धरातल पर जो मंजर है वह भी चिख चिख कर बंया कर रहा है कि भारतीय जनता पार्टी भी इस तरह की रेवड़ी कल्चर को अपनाने से अछूता नहीं रहा है

छत्तीसगढ़ में भारतीय जनता पार्टी की डबल इंजन सरकार के द्वारा सत्ता में आने से पहले 2023 के चुनावी घोषणापत्र में "गारंटी पूरी होने की गारंटी" दी गई थी। बीजेपी सहित तत्कालीन भाजपा अध्यक्ष और वर्तमान समय के उपमुख्यमंत्री अरुण साव और घोषणा पत्र समिति के संयोजक विजय बघेल ने जनता से बड़े बड़े वायदे किए थे,जिनमें 57,000 शिक्षकों की भर्ती का आश्वासन भी शामिल था,लेकिन सरकार बने लगभग एक साल होने को है, और राज्य के बेरोज़गार युवाओं को अब भी इस भर्ती का इंतजार है। चुनावी वादे सिर्फ कागजों तक सीमित रह गए हैं। बेरोज़गारी से जूझते युवा और शिक्षा व्यवस्था को मजबूत करने की आवश्यकता को नज़रअंदाज़ करना सरकार की प्राथमिकताओं पर सवाल खड़ा करता है। क्या यह वादाखिलाफी नहीं है? क्या भाजपा सरकार अपने घोषणापत्र को केवल चुनावी हथकंडा मानती है? जनता को अब जवाब चाहिए। आश्वासन की जगह ठोस कार्रवाई समय की मांग है।


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