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परदेशी बाबू मजा उड़ाए,अऊ देशी बाबू कांदा पकड़े खड़े रह जाए।

रायपुर : 1 नवंबर सन् 2000 को छत्तीसगढ़ राज्य का गठन इस उम्मीद और आशा से किया गया था कि छत्तीसगढ़ राज्य के प्रत्येक नागरिकों तक सरकारी योजनाओं का लाभ सरकार सफल तरीके से पहुंचा सकें साथ ही जनता भी अपनी बात सरकार तक आसानी से कह सकें। इससे पहले अविभाजित मध्यप्रदेश के दौर में छत्तीसगढ़ राज्य के नागरिकों को सरकारी योजनाओं में लाभ उठाने की सोचना तो दूर जानकारी तक मिलना बहुत मुश्किल कार्य माना जाता रहा है।
ऐसे में राज्य गठन पश्चात् सामने खड़ी तमाम चुनौतियों से निपटते हुए छत्तीसगढ़ राज्य को एक सशक्त और मजबूत एवं स्वालंब राज्य बनाना सभी प्रदेशवासियों की अहम जिम्मेदारी है। अबतक छत्तीसगढ़ राज्य के लगभग पौने तीन करोड़ प्रदेशवासियों ने अपनी जिम्मेदारीयों का निर्वहन करते हुए बेजोड़ पसीना बहाया है और सूब्बे की इस मिट्टी को धान के कटोरा के काबिल बना दिया है। सूब्बे की सियासत में राज करने वाले सभी राज्य सरकारों ने भी अपनी अपनी ओर से इस दिशा में प्रयास करने हेतू काम किया है। हालांकि सूब्बे की सियासत पर काबिज रहने वाले सरकारों ने अबतक कितना प्रयास किया है और कितना बांकी रह गया है। सरकारो के द्वारा किए गए उन प्रयासों में कितनी सफलता हासिल हुई है या फिर मिलना बांकी है,यह तो सत्ता पर काबिज रहने वाले सियासत दान ही जानते हैं। बहरहाल किसी भी राष्ट्र की सियासत उस राज्य में रहने वाले लोग ही संम्हाले तो राजनीति में इसे अच्छा कार्य माना गया है, विडंबना यह है कि सूब्बे पर राज करने वाले ज्यादातर हमारे लोकप्रिय सियासत दानों ने सूब्बे की सियासत को दिल्ली दरबार के हवाले कर रखा है। सूब्बे की सियासत से ताल्लुक रखने वाले लोग जरूर हमारी इस बात से इतिफाक नहीं रखना चाहेंगे लेकिन जो सत्य है उससे इंकार भी नहीं किया जा सकता है। इसलिए छत्तीसगढ़ राज्य की इस पवित्र भूमि पर राज करने वाले तमाम सियासत दानों को सूब्बे की जमीनी सच्चाई को करीब से देखना और परखना चाहिए बजाए दिल्ली की नजरों से ताकी आगे आने वाले दिनों के दौरान इस मंजर में बदलाव हेतू जरूरी कदम उठाया जा सके। यह सर्व विदित है कि छत्तीसगढ़ राज्य के अंदर गरीबी चरम पर है। जिसके चलते इस राज्य में मुख्य चुनावी मुद्दा आज भी अनाज है(चांऊर)। पूर्वी मुख्यमंत्री डाक्टर रमन सिंह विगत कई वर्षों से चांऊर वाले बाबा से लेकर कथित रूप से चांऊर चोर तक के रूप में मशहूर हो चुके है।आदीवासी राज्य के तौर पर चर्चित इस प्रदेश में आजादी के 75 साल बित जाने के बाद आज भी जल्दी जंगल जमीन की लड़ाई यंहा के निवासी खुद अपने पैरों में खड़े हो कर लड़ रहे हैं। कहने का मतलब यह है कि राज्य के ज्यादातर हिस्सों में नागरिक अपनी मूलभूत अधिकारों की रक्षा से जुझ रहे हैं जबकि दूसरे राज्यों से आकर बसने वाले ज्यादातर लोग स्थानीय लोगों की मूलभूत अधिकारों और सुविधाओं पर बेज्जा कब्जा कर रहे हैं। हैरानी की बात यह है कि गैर छतिसगढ़ीहा लोगों को सपोर्ट करने वाले लोग कोई दूसरा बल्कि सरकारी जमात से जुड़े हुए ज्यादातर लोग हैं या फिर सूब्बे की सियासत पर बैठने वाले लोग हैं। बिते कुछ वर्षों के दौरान से कांग्रेस पार्टी लगातार छत्तीसगढ़िया वाद की जबदस्त लहर को सूब्बे की गांव, गली, सड़क मुहल्ले से लेकर लोगों की घरों में मौजूद चूल्हापाट तक लेकर जाते हुए लोगों को दिखाई दिये है। इससे पहले यह कारनामा छत्तीसगढ़ राज्य की सत्ता पर काबिज रहने वाले अन्य और सरकारों ने करने का प्रयास किया है हालांकि इसमें उन्हें मौजूदा सरकार के माफिक सफलता नहीं मिल सकी है। लेकिन हैरानी की बात यह है कि इस लहर को जबदस्त तरीके से घर घर तक पहुंचाने वाले लोगों को इसकी असल मायने की जानकारी नहीं है। ऐसे में सोचने वाली बात यह है कि आखिरकार लोगों को छत्तिसगढ़िवाद की मायने ज्ञात नहीं है तो फिर इस लहर को घर घर तक पहुंचाने हेतू क्यों मसक्कत कर रहे हैं। दरअसल छत्तीसगढ़ राज्य के अंदर स्थानीय लोगों के मध्य गैर छतिसगढ़ीहा लोगों के प्रति विचारधाराओ में विगत कुछ वर्षों के दौरान काफी बदलाव देखने को मिल रहा है। यह बदलाव समाज के मध्य ऐसे ही नहीं पनपा है यह समझने की बात है। वैसे भी माना जाता है कि बैगर आग धुंआ नहीं उठता है। विधानसभा चुनाव से पहले कांग्रेस पार्टी को छतिसगढ़िहा वाद की भनक लग गई थी और कांग्रेस पार्टी ने बकायदा इसे भूनाने हेतू लगभग हर स्तर पर प्रयास किया है। इस दौरान आलम यह तक देखने को मिला कि गेंड़ी से लेकर भौंरा,गोठान से लेकर घुरवा, रेती से लेकर सट्टा इन  सबके दिन बौर गए। इन्हीं कार्यों की समीक्षा करते हुए कांग्रेस पार्टी दोबारा सत्ता में काबिज होने की सपना संजोए बैठी हुई है,लेकिन हाल के दिनों में आई एक घटनाक्रम ने छत्तीसगढ़ राज्य सरकार की छतिसगढ़िहा वाद की नियत पर सवाल खड़ा कर दिया है।
दरअसल बिते दिनों बड़े कांग्रेसी नेताओं से लेकर बड़े नौकरशाहो और मजबूत फौलादो के औलादौ को पी एस सी परिक्षा में अपार सफलता हासिल हो गई। रातों रात बड़े बड़े तुर्रमखानो की जमात सरकारी विभागों में चुन लिए गए कोई अधिकारी के बेटा डिप्टी कलेक्टर बन गया तो किसी नेता के नालायक बेटा अपर कलेक्टर बन गया किसी को कानो कान भनक तक नहीं लगी और जब लगी तो कांग्रेस पार्टी पुराने दिनों वाली भाजपाइयों की पोल खोलने लग गए अंत में सब बराबर। छत्तीसगढ़ राज्य में यह पहली घटना नहीं है इस तरह से सरकारी नौकरियों पर कब्जा कोई बड़ी बात नहीं है इससे पहले लगातार कई बार इस तरह के मामले लोगों के सामने आते रहते हैं। जिसमें यह पाया  जाता है कि सियासी गलियारों या विभागों में जिसकी तूती बोलती है वे कुछ भी करते हुए किसी भी व्यक्ति को सरकारी नौकरी भेंट कर रहे हैं।इससे पहले भाजपा शासन काल के दौरान भी इसी तरह की गतिविधि लोगों को देखने मिला था। इस घटनाक्रम के घटित होने के बाद एक बार फिर स्थानीय लोगों के लिए यह चिंता का विषय बना हुआ है कि छत्तीसगढ़ राज्य में लगातार बाहरी लोगों का दबदबा बढ़ता ही जा रहा है चाहे वह किसी भी स्तर पर हो इससे ना सिर्फ प्रदेशवासियों की मौलिक अधिकार पर खतरा बना हुआ है बल्कि शिक्षा रोजगार,आवास जैसे महत्वपूर्ण संसाधन पर भी दबाव महसूस किया जा रहा है। सरकार को मामले की गंभीरता को समझते हुए उचित जांच करना चाहिए ताकि युवाओं में किसी भी प्रकार से अवसाद की रचना ना हो सके।

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