बालोद : देश का ‘स्टील फ्रेमवर्क’ मानी जाने वाली कार्यपालिका किसके प्रति जवाबदेह है? उस जनता के प्रति जिसके कर और टेक्स के पैसे से इसे वेतन और सुविधाएं मिलती हैं या राजनेताओं के प्रति जो हर चुनाव में बदलते रहते हैं?
आम व्यवहार में देखने में यह आता है कि जिस जनता की सेवा के लिए इस तंत्र को खड़ा किया गया है और पाला-पोसा जाता है, उस जनता के प्रति इन तथाकथित जनसेवकों का व्यवहार बहुत निराशाजनक और सामंतवाद की दुर्गंध लिए होता है। ऐसा नहीं है कि इसके अपवाद नहीं हैं पर उनका प्रतिशत लगातार घटता जा रहा है। कार्यपालिका के इस तंत्र को नौकरशाही कहा जाता है। जैसा कि नाम से ही स्पष्ट है, नौकर यानी सेवक, जो अपने मालिक की विनम्रता से और ईमानदारी से सेवा करे। इस परिभाषा के अनुसार हर नौकरशाह को आम जनता यानी गरीब से गरीब आदमी की सेवा करने, उसकी फरियाद सुनने और उसकी समस्याओं का हल करने के लिए 24 घंटे खुले दिल से तत्पर रहना चाहिए जबकि होता इसका उल्टा है।
नौकरशाहों के सरकारी बंगलों पर प्राय: गरीब या आम आदमी को फटकार, तिरस्कार या उपेक्षा मिलती है। जबकि भ्रष्ट, अपराधी या माफिया किस्म के लोगों को, उनके राजनीतिक सम्पर्कों के कारण, विशिष्ट व्यक्तियों का सा सम्मान मिलता है। जबकि दुत्कारा जाने वाला व्यक्ति अपने खून-पसीने की कमाई से नौकरशाही का भरण-पोषण करता है और सार्वजनिक संसाधनों और बैंकों को अवैध तरीके से लूटने वाला तथाकथित बड़ा आदमी समाज पर जोंक की तरह होता है। फिर भी नौकरशाही अपने असली मालिकों की उपेक्षा करके इन नकली मालिकों के आगे झुकती है। उसके इसी रवैये के कारण देश तरक्की नहीं कर पा रहा और लुटता रहता है।
जिन राजनीतिक आकाओं के सामने इस तंत्र को अफसरशाही दिखानी चाहिए, वहां ये दुम दबाकर नौकरशाह बन जाते हैं। अफसरशाही मतलब हर मुद्दे को कानून के दायरे में समझ कर और उसके व्यावहारिक हल ढूंढ कर मंत्री के आगे प्रस्तुत करना अफसरशाही का कत्र्तव्य होता है। उससे अपेक्षा की जाती है कि बिना राग द्वेष के हर मुद्दे पर अफसर अपनी निष्पक्ष राय प्रस्तुत करेगा, जिससे मंत्री को सही निर्णय लेने में सुविधा होगी।
इतना ही नहीं, अगर मंत्री अपने दल या स्वयं के लाभार्थ अफसर पर अनुचित दबाव डालकर कुछ अवैध या अनैतिक काम करवाना चाहता है तो अफसर का फर्ज होता है कि वह उसे ऐसा करने से रोके या उसे फाइलों के पेचों में उलझाकर उसके इरादों को कामयाब न होने दे जिससे जनता और देश का भला हो। पर होता इसका उल्टा है। अपने राजनीतिक आकाओं को खुश करने के लिए अफसरशाही झुकना तो छोटी बात है, उनके आगे साष्टांग लेटने में भी संकोच नहीं करती। स्पष्ट है कि ऐसा अनैतिक कृत्य करने के पहले अफसर को यह विश्वास होता है कि इस ‘सेवा’ का उसे अपेक्षा से ज्यादा व्यक्तिगत लाभ मिलेगा। इसलिए वह लालच के अंधे कुएं में डूबता चला जाता है। ऐसा कम ही होता है कि इस तरह का भ्रष्ट आचरण करने वाला अफसर कभी कानून के शिकंजे में फंसता हो बल्कि इनके लापरवाही पूर्वक कार्य करने के चलते कई नागरिकों को बहुत कुछ सहन करना पड़ता है । बालोद जिला में घटी तूएगोंदी की घटना में बलि चढ़ाने से जुड़े एक मामले में शुरू विवाद ने छत्तीसगढ़ की मौजूदा सरकार को असमंजस की स्थिति में डाल दिया है । उक्त घटणा को लेकर सरकार में इतनी नाराजगी की आंशका जताई जा रही है ,जिसे सुनकर जिला में किसी ना किसी बड़े अधिकारी का प्रशासनिक बलि चढ़ाना तय माना जा रहा है । पाटेश्वर धाम के द्वारा वन विभाग की जमीन पर अवैधा कब्जा संबंधित शिकायत सर्व आदीवासी समाज बालोद ने जिला प्रशासन के समक्ष पहले ही प्रस्तुत किया जा चुका है , जिसके बाद में जिला प्रशासन ने पाटेश्वर धाम में तथाकथित अवैध कब्जाधारी बाबा बालक दास पर कोई कार्यवाही नहीं हुई । अलबत्ता सरकारी सहयोग और सहायता उक्त बाबा की संस्था को दिया जाता रहा है ,जब पाटेश्वर धाम गलत तरीके से काबिज जमीन पर है तो जिला प्रशासन अब तक कोई माकूल कार्यवाही नहीं की है जो कि गंभीर सवाल खड़े कर रहे हैं ।